राज्य स्तरीय कुंठित मानसिकता और मोदी की साख

क्या यह समय और समझ, दोनों के रिवर्स गियर में आ जाने वाला मामला है? भाजपा ने मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशी चुनने के नाम पर अपनी आखिरी सूची में चुन-चुनकर जो गलतियां दोहराई हैं, उन्हें देखकर आरंभ वाला सवाल अर्थहीन नहीं लगता है. नरेंद्र मोदी वर्ष 1998 के चुनाव में मध्यप्रदेश भाजपा के प्रभारी बनाकर भेजे गए. उनका पद भले ही बड़ा था, लेकिन कद के मामले में राज्य के कई दिग्गज भाजपा नेता मोदी पर हावी थे. इसलिए टिकट वितरण में दिग्गज नेताओं की ही चली और मोदी की दाल नहीं गली. फिर जब पार्टी 1993 के बाद लगातार दूसरी बार 1998 में भी विधानसभा चुनाव हारी, तब इसकी मूल वजह मनमाने टिकट वितरण को ही माना गया. क्योंकि उन दिग्गजों को यह मुगालता हो गया था कि भाजपा की जीत तय है, फिर चाहे प्रत्याशी कोई भी क्यों न हो. मोदी आज प्रधानमंत्री हैं. राज्य में फिर चुनावी घमासान का मौक़ा है. अब कद और पद, दोनों के चलते मामला यह कि व्हाया भाजपा संगठन, इस सारे अभियान की सीधी कमान मोदी के हाथ में है.

प्रत्याशी चयन में भी उनका रसूख ‘मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता’ वाला है. मगर जो 229 नाम भाजपा ने घोषित किए हैं, उनमें से कई को देखकर यह विश्वास नहीं होता कि यह चयन मोदी सहित अमित शाह जैसे दिग्गज रणनीतिकारों ने किया है. बल्कि यही लग रहा है कि एक बार फिर 1998 जैसा ही मामला है. कहा गया है कि आइना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं. मध्यप्रदेश भाजपा में 1998 वाले चेहरे बदल गए, लेकिन आइना वही है, जो दिखा रहा है कि राज्य में इस पार्टी ने उस ऐतिहासिक भूल से कोई सबक नहीं लिया है. टिकट वितरण में जिस किस्म की ‘राज्य स्तरीय मानसिकता’ हावी दिख रही है, उसे देखकर तो यही लगता है कि इस दिशा में उनकी चली, जो इस चुनाव में अपने निजी राजनीतिक शुभ-लाभ की दुकान का शटर हमेशा के लिए गिर जाने की आशंका के चलते इस तरह पार्टी की संभावनाओं को कमजोर करने पर आमादा हो गए हैं.


राज्य में कई ऐसे लोगों को भाजपा का प्रत्याशी बना दिया गया है, जो पार्टी की जीत की संभावनाओं को बट्टा लगाने की घातक क्षमताओं से सुसज्जित हैं. इनमें से ज्यादातर ऐसे, जिनका पार्टी सहित अपने क्षेत्र के भीतर भी तगड़ा विरोध है. वे जीत की संभावनाओं के लिहाज से चुके हुए कारतूस हैं. मतदाता के बीच उनकी छवि ‘थकेले’ वाली है और वह उन्हें ‘धकेले’ जाने का पूरी तरह मन बना चुका है. यह तथ्य किसी भारी-भरकम टीम के सर्वेक्षण के बगैर भी आसानी से पता लगाया जा सकता है . ऐसा सबको पता भी है, लेकिन यह नहीं पता कि इस सबके बावजूद कई सीटों पर ऐसे ‘काहिल’ किस तरह भाजपा के लिए ‘काबिल’ वाली सूची में जगह बनाने में सफल हो गए?

वैसे तो कांग्रेस की हालत भी इससे अलग नहीं है. उसने भी मध्यप्रदेश में कई ऐसे लोगों को ‘नगीने’ की तरह गले लगाया है, जो हकीकत में किसी ‘नमूने’ से अधिक हैसियत नहीं रखते हैं. पार्टी ने भले ही 229 नामों वाली अपनीं दो लिस्ट शुभ मुहूर्त में जारी की हैं, लेकिन इनमें कई चेहरे ऐसे हैं, जो पार्टी के लिए अभी से अशुभ वाली फेहरिस्त में खड़े हुए साफ़ नजर आते हैं. मामला वही 2003 के विधानसभा चुनाव वाला है. तब दिग्विजय सिंह चुनाव मैनेजमेंट की अपनी थ्योरी के दंभ में चूर थे. इसके चलते पार्टी के लिए जीत की हैट्रिक वाली संभावनाएं चूर-चूर हो गईं. क्योंकि प्रत्याशी चयन में दिग्विजय की चली और इसके नाम पर गलतियों के चलते पार्टी अस्तांचल में चली गई.

तो क्या कांग्रेस की इस स्थिति को देखते हुए ही भाजपा ने आज जारी पांचवीं सूची में कई घनघोर रूप से कमजोर चेहरों पर भी दांव लगा दिया है? क्या उसे यह यकीन है कि कांग्रेस के अब तक जारी 229 नामों में से अधिकतर ऐसे हैं, जिन्हें भाजपा के टिकट पर खड़ा कोई भी व्यक्ति हरा सकता है? यदि ऐसा है तो तय मानिए कि भाजपा 1998 वाली मानसिकता को दोहराने की दिशा में बढ़ चली है. यह भी तय मानिए कि अब नतीजा यदि बिगड़ा तो फिर सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी ही इसके लिए जिम्मेदार माने जाएंगे. फिर भले ही मामला नेपथ्य में ‘राज्य स्तरीय कुन्ठग्रस्त मानसिकता’ से पूरी तरह प्रेरित साबित क्यों न हो.राज्य के स्तर पर ऐसे चेहरे एक, दो या तीन तक हो सकते हैं. फिर तालाब का पानी गन्दा करने के लिए तो एक ही मछली पर्याप्त होती है.राज्य के स्तर पर ऐसे चेहरे एक, दो या तीन तक हो सकते हैं.फिर तालाब का पानी गन्दा करने के लिए तो एक ही मछली पर्याप्त होती है.

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