महानगर नामक एक कहानी श्रंखला को पढ़ना रोचक अनुभव था. इसकी एक कहानी दो व्यावसायिक प्रतिद्वंदियों की है. पहले पात्र की जिद है कि दूसरे की कंपनी के शेयर में बहुमत पाकर वहां का सर्वेसर्वा बन जाए. उसके इन प्रयासों को रोकने के लिए दूसरा हर जायज-नाजायज हथकंडा अपनाता है. पहला जीत तो जाता है, लेकिन इस खींचतान के बीच सामने वाले के किये गए घनघोर किस्म के चारित्रिक हमलों की टीस उसे सालती रहती है. इसके चलते उस फतेह की गयी कंपनी में वह अपनी जगह अपने नीम पागल भाई को चेयरमैन बना देता है. यह तय मानकर चलिए कि राज्यसभा चुनाव में अपनी जीत के बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया किसी भी सूरत में खुलकर प्रसन्न नहीं हो पा रहे होंगे. क्योंकि अभी तो उन्हें कांग्रेस से अपने बहुत सारे और भी हिसाब चुकता करने हैं
उन अपमानों का बदला लेना है, जो कांग्रेस में उन्हें मिले. महलों में कई निषिद्ध कक्ष भी होते हैं. जिनमें केवल राज परिवार के लोग ही जा सकते हैं. जयविलास पैलेस में यदि कोई ऐसा कक्ष है तो उसमें शायद गत्ते का वह चक्र लगा होगा, जिस पर बने निशानों पर दूर से नुकीली वस्तु मारकर निशानेबाजी का अभ्यास किया जाता है. इस चक्र पर मुझे यहां बैठे-बैठे ही दिग्विजय सिंह और कमलनाथ सहित डा. गोविन्द सिंह आदि-आदि के चित्र निशानों की जगह लगाए गए होंगे. मामला महाराज के गुस्से का है, जिसकी एक्सपायरी डेट बड़ी मुश्किल से ही आ पाती है. तो अपने इस गुस्से को कायम रखने के लिए फिलहाल सिंधिया के पास एक अच्छा मंच भी है. भाजपा आज इतनी ताकतवर है कि उसके सहयोग से सिंधिया अपने राजनीतिक अपमान का बदला ले सकते हैं.
लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? यह तब ही मुमकिन है, जब सिंधिया कुछ महीने पहले अपने तन पर डाले गए भगवा वस्त्र को अपने मन में भी स्थान दे दें. यानि वे पूरी तरह अपनी नयी पार्टी के रंग में रंग जाएं. इतिहास करवट लेकर हमें प्रदेश के संविद सरकार वाले दौर की याद दिलाएगा. तब जिस तरह सिंधिया की दादी विजयाराजे सिंधिया ने राज्य में कांग्रेस की हुकूमत उखाड़ फेंकी थी, वैसा ही अब पोता भी कर गुजरा है. तब जो हुआ, उसके बाद विजयाराजे ने ग्वालियर राजघराने के आभामंडल से बाहर जनसंघ के भीतर भी राजमाता का सम्बोधन हासिल कर लिया था. अपने जीवन के अंतिम समय तक राजमाता भाजपा में भी पूरी शक्ति के साथ आदर की पात्र बनी रहीं.
वजह यह कि संविद सरकार भले ही जल्दी ही खेत रही, लेकिन श्रीमती सिंधिया ने राज्य में जनसंघ को वह ताकत प्रदान कर दी थी, जिसके जरिये अंतत: राज्य के सियासी तालाब में कमल की भरपूर खेती हो पाना संभव हो सका था.& मगर ज्योतिरादित्य सिंधिया का मामला अलग है. क्योंकि देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा को उनसे ताकत की आवश्यकता नहीं है. नि:संदेह, कमलनाथ सरकार को सड़क पर लाने का करिश्मा सिंधिया की बदौलत ही संभव हो सका, लेकिन आगे क्या? इस प्रश्नवाचक चिन्ह पर ही सिंधिया का भविष्य ठिठका दिख रहा है. ज्योतिरादित्य से भाजपा वह सबसे बड़ा लाभ ले चुकी है, जिसके आगे और कुछ खास रह नहीं जाता है. पुरानी शादियों में डोली ठिकाने पर पहुंचाने के बाद कहार आराम से पसर जाते थे.
फिर उनके लिए भोजन से लेकर उनकी पसंद के विशिष्ट पेय पदार्थों का इंतजाम किया जाता था. भाजपा को फिर सियासी पाणिग्रहण का मौका देने के बाद सिंधिया आराम की मुद्रा में रहे. पार्टी ने उनके लिए बैठे-बिठाये राज्यसभा की सदस्यता का इंतजाम कर दिया. आगामी उपचुनावों में सिंधिया के समर्थक लगभग सभी विधायकों को टिकट मिलना तय हो ही गया है. यह भी सुनिश्चित है कि शिवराज के मंत्रिमंडल विस्तार में ज्योतिरादित्य के लोगों को पूरी तवज्जो दी जाएगी, लेकिन इसके बाद क्या? क्या यह होगा कि शिवराज और अन्य दिग्गज भाजपाइयों के बरअक्स सिंधिया इस दल में किसी शक्ति-पुंज की तरह दैदीप्यमान होते दिख पाएंगे? आज, कल, परसों और करीब आगामी साढ़े तीन साल बाद तक के लिए इसका जवाब हां है, लेकिन उसके बाद को लेकर संशय वाला माहौल है. क्योंकि तब तक विधानसभा के अगले चुनाव आ चुके होंगे. आज तो सिंधिया इस हाथ दे, उस हाथ ले वाली मुद्रा में भाजपा से तमाम राजनीतिक लाभ ले सकते हैं, लेकिन अगले चुनाव के लिए बड़े अनुपात में मुनाफे का सौदा अपने हक में कर पाना उनके लिए शायद ही आसान रह पाए. उसके लिए सिंधिया को अपने आप को बहुत बदलना होगा.