देश को प्रधानमंत्री देने वाला राज्य भले ही उत्तर प्रदेश हो लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा ने जिस तरह से सियासी तोड़फोड़ का सफल प्रक्षेपण किया है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि महाराष्ट्र के सहयोग से ही अगला प्रधानमंत्री चुना जा सकता है. महाराष्ट्र के ताजा सियासी खेल से न सिर्फ महाराष्ट्र का विपक्ष बल्कि देश का विपक्ष भी औंधे मुंह गिरा हुआ दिख रहा है. भाजपा ने महाराष्ट्र में पहले शिवसेना को तोड़ा और उसके बाद राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले शरद पवार की एनसीपी को भी तोड़कर अपनी सरकार में शामिल कर लिया है. राजनीतिक गलियारे में चर्चा तो यह भी है कि आपरेशन लोटस के तहत महाराष्ट्र कांग्रेस का बड़ा धड़ा भी राज्य की भाजपा सरकार में आने को बेताब है. अगर कांग्रेस भी टूट जाती है तो देश के उन राज्यों में भी जहां मोदी विरोधी सरकारें है वहां भी सियासी बदलाव हो सकते हैं. क्योंकि, भाजपा कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाली अपनी नीति से विपक्ष को कमजोर करने और क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म करने का काम कर रही है. भाजपा की सबसे बड़ी चाल यह है कि वह विपक्ष को कुछ और बातों में उलझाकर रखती है और अंदर ही अंदर वह विपक्ष या क्षेत्रीय पार्टियों को तोड़ने की रणनीति पर काम करती रहती है और इसी का फायदा उसने महाराष्ट्र में लिया है. शिवसेना और एनसीपी के टूटने के बाद भाजपा को अब यह भी विश्वास हो चला है कि कांग्रेस महाराष्ट्र में कर्नाटक की कहानी नहीं दोहरा पाएगी. अब हम देश के उन राज्यों की स्थिति को नजर दौड़ाते हैं जहां भाजपा ने अपना आपरेशन लोटस चला रखा है. इसमें अभी बिहार चर्चा में हैं. भाजपा को विश्वास है कि बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू में तोड़फोड़ सफल होगी और जदयू ही नहीं बल्कि लालू प्रसाद की पार्टी राजद के भी कुछ विधायकों को तोड़ लिया जाएगा और भाजपा फिर से सत्ता पर काबिज हो जाएगी. असलियत यह है कि भाजपा के पास दो केंद्रीय एजंसियां हैं जिसकी मदद से सियासत के लिए विरोधी दलों में तोड़फोड़ का प्रक्षेपण आसानी से किया जा रहा है. यह भी सच है कि देश की राजनीति भ्रष्टाचार के दलदल में हैं और हर राजनीतिक दल के कुछ नेता इस दलदल में फंसे हुए हैं जिसका फायदा भाजपा को मिल रहा है. यह दीगर बात है कि भाजपा में आने वाले दागदार नेता भाजपा के वाशिंग मशीन में साफ हो जाते हैं. आम जनता को पता है कि कांग्रेस या दूसरे दलों से भाजपा में जो भी नेता शामिल हुए हैं वो दागदार हैं और भाजपा में आते ही वे सफेदी की चमकार के साथ दिखते हैं. महाराष्ट्र में भी एनसीपी के जिन नौ नेताओं ने भाजपा का दामन थामकर मंत्री पद की शपथ ली उनमें से ज्यादातर ईडी की जांच में फंसे हुए हैं. शिंदे गुट की शिवसेना के विधायक भी दागों में सने हुए हैं. बिहार में भी जदयू के कुछ नेताओं और उनके रिश्तेदारों पर ईडी ने अपना डंडा चला दिया है. लालू प्रसाद, तेजस्वी यादव और राबड़ी देवी नौकरी देने के एक मामले में फंसे हुए हैं और भाजपा ने इसे मुद्दा बना लिय़ा है और इसी के सहारे भाजपा सरकार गिराने का खेल खेल रही है. बिहार में भी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के बाद सबसे ज्यादा लोकसभा सीट है और भाजपा को नीतीश सरकार गिराने में सफलता मिल जाती है तो भाजपा को लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में वह ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने में कामयाब हो सकती है. भाजपा बिहार में भी महाराष्ट्र की तरह ही विपक्ष के साथ लालू और नीतीश की क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म करना चाहती है. लेकिन भाजपा का यह अभियान बिहार में ही विश्राम नहीं करेगा. यह भी सच है कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए विपक्ष को एकजुट करने का अभियान नीतीश ने ही शुरू किया. देश के विपक्षी दलों के नेताओं को बिहार में बुलाया और एकजुट होने के लिए सभी के मन को तैयार करने की कोशिश भी की. लेकिन मतांतर को एकजुट करने में समय लगता है और उसकी पोल एनसीपी के नेता प्रफुल्ल पटेल ने खोल दी. उन्होंने साफ कहा कि विपक्ष का नेतृत्व राहुल गांधी नहीं कर सकते और उनका नाम आते ही महाराष्ट्र में एनसीपी में फूट पड़ी और उनके साथ एनसीपी ने भाजपा का दामन थाम लिया. इसमें कोई दो राय नहीं कि हरेक राज्य में क्षेत्रीय पार्टियां अपने दम पर राज करती हैं. ऐसे में भाजपा के लिए बड़ी बाधक ये क्षेत्रीय पार्टियां हैं और इनको तोड़ने से ही भाजपा पूरे देश पर राज कर सकती है. एक बात और वह यह कि 2024 के लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं है. इसलिए भाजपा जब तक विपक्ष और क्षेत्रीय पार्टियों को दुबला पतला नहीं करेगी तब तक मोदी को पीएम की मजबूत कुर्सी नहीं मिलेगी. यही वजह है कि मोदी के सबसे करीबी अमित शाह अपनी रणनीति के तहत विपक्ष और क्षेत्रीय पार्टियों को कुचलने का काम कर रहे हैं. वैसे, भाजपा बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल, झारखंड, पंजाब और दिल्ली में भी आपरेशन लोटस वाले प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग कर रही है. एक बार फिर हम महाराष्ट्र की तरफ लौटते हैं और यह जानने की कोशिश करते हैं कि शिवसेना और एनसीपी जैसी क्षेत्रीय पार्टियां जो अपने जनाधार के बल पर चुनावी रणक्षेत्र में भाजपा के लिए चुनौती बन जाती है वही भाजपा के निशाने से बिखर क्यों गई. कानूनी दांवपेंच की लड़ाई देखने के बाद यह स्पष्ट हुआ है ये दोनों पार्टियां अपने संगठनात्मक कानून में कमजोर पड़ रही है और उसे संवैधानिक कानून के आगे कमजोर होना पड़ा है. जिस तरह से बागी एकनाथ शिंदे ने मूल शिवसेना को हासिल करने की लड़ाई जीती है उसी तरह से अब अजित पवार भी लड़ेंगे. शिंदे और उनके गुट के विधायकों ने शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे को आदर्श माना हुआ है और अब अजित पवार ने भी सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर लिया है कि शरद पवार ही एनसीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. लेकिन जब पार्टी के संगठनात्मक चुनाव ही नहीं हुए हैं तो एनसीपी के सारे फैसले शरद पवार नहीं ले सकते हैं और विधायकों की संख्या बल पर अजित पवार गुट खुद को ताकतवर मानता है. विधानसभा अध्यक्ष के सामने भी विधायकों की संख्या ही मायने रखती है और विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती देना बहुत आसान नहीं है. दरअसल जब रामविलास पासवान के निधन के बाद भाजपा ने उनकी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी को तोड़ने की स्क्रिप्ट पर पहली फिल्म बनाकर सफल प्रदर्शन किया तो इससे देश की किसी क्षेत्रीय पार्टी ने सबक लेने की पहल नहीं की. पासवान की पार्टी टूट गई और उसी स्क्रिप्ट को महाराष्ट्र में शिवसेना और फिर एनसीपी पर दोहराया गया. यह सिनेमाई तरीका है जब एक विषय की स्क्रिप्ट सफल हो जाती है तो बॉलीवुड में उसी पैटर्न की और फिल्में बनती हैं. संवैधानिक रूप से काफी मजबूत इस स्क्रिप्ट को भाजपा पूरे देश में दोहराने का काम कर रही है और उसे सफलता मिल रही है. क्योंकि, विपक्ष या क्षेत्रीय पार्टियां अपने संगठनात्मक चुनाव पर ध्यान नहीं दे रही है. उसे भाजपा की तरह कानूनी दांवपेंच भी सीखने पड़ेंगे. भाजपा सिर्फ केंद्रीय एजंसियों को हथियार नहीं बना रही है. भाजपा ने शिवसेना और एनसीपी के मजबूत गुट को अपने पाले में करने के लिए उनकी कमजोर नसों को भी पकड़ा है. महाराष्ट्र की जनता चुनाव के वक्त मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का यह बयान भूल जाएंगी जिसमें शिंदे ने कहा कि हमने महा विकास आघाड़ी से निकलकर भाजपा के साथ सरकार इसलिए बनाई कि उद्धव ठाकरे ने बाला साहेब के हिंदुत्व को भूलकर सत्ता के लिए कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई. लेकिन अब शिंदे को एनसीपी से कोई परेशानी नहीं है. सत्ता में मजबूती के लिए शिंदे और भाजपा को एनसीपी की जरूरत थी वो पूरी हो गई, बस. अब चुनावों में मतदाताओं के मत का इंतजार कीजिए. तब पता चलेगा कि आखिर जनता भी किस तरह की बातों पर भरोसा करती है.