महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति पर दशहरा रैली का असर

महाराष्ट्र में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की दशहरा रैली की अपनी खासियत थी. इस रैली में ठाकरे अपने अंदाज में दहाड़ते थे. विपक्ष सहमा रहता था. क्योंकि, ठाकरे के शब्द गुदगुदाने वाले अंदाज में भी आक्रामक होते थे. वे अपने शब्द बाण से विरोधियों का दहन करते थे. उनकी रैली दादर के शिवाजी पार्क में ही होती थी. ठाकरे इसी रैली से अपने शिवसैनिकों में जोश और ऊर्जा का संचार करते थे जिससे उन्हें अगले चुनावी राजनीति में लाभ मिलता था. शिवाजी पार्क, दशहरा रैली और ठाकरे की गर्जना का अपना जीवंत इतिहास है. इस रैली के इतिहास को दोहराना आसान नहीं है. ठाकरे एक करिश्माई व्यक्तित्व भी हैं. उनके साथ शिवसैनिक भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं. यह जुड़ाव शिवसेना के साथ आज भी हैं. यही वजह है कि ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे उस विरासत को जीवंत रखने की कोशिश कर रहे हैं. इस दशहरे रैली में उद्धव ने भी गर्जना की है और उनके बाण विरोधियों के साथ एकनाथ शिंदे पर चले हैं. शिंदे पहले शिवसेना में ही थे. लेकिन उन्होंने शिवसेना को तोड़ने का काम किया है. हालांकि, कानूनी लड़ाई में शिंदे का पलड़ा अब तक भारी है और वे अपने गुट की शिवसेना को असली शिवसेना होने का दावा कर रहे हैं. बावजूद इसके उन्हें शिवाजी पार्क की बजाय आजाद मैदान में दशहरा रैली करना पड़ा. शिंदे को भरोसा है कि असली शिवसैनिक उनके साथ हैं. इसलिए रैली के लिए मैदान शिवाजी पार्क हो या आजाद मैदान इससे फर्क नहीं पड़ता है. यह शिंदे की भावना है. मगर उद्धव की सोच यह है कि बाला साहेब, शिवाजी पार्क, शिवसेना और शिवसैनिक को अलग करके नहीं देखा जा सकता है. शिवाजी पार्क से ही निकली हुई आवाज शिवसैनिकों में नई ऊर्जा का संचार करती है.

ठाकरे ने अपनी दशहरा रैली की परंपरा को कायम रखा था. महाराष्ट्र के राजनीतिक मंच पर वह अपनी तरह की इकलौती दशहरा रैली होती थी. लेकिन इस साल तो महाराष्ट्र में कई दशहरा रैलियां हुईं और इसमें सबके अपने-अपने राजनीतिक मकसद दिखे. परंपरागत दशहरा रैली उद्धव ने शिवाजी पार्क में ही की. इसके विरोध में शिंदे ने अपने गुट की शिवसेना की रैली आजाद मैदान में की. ये दोनों रैलियां मुंबई में हुई तो तीसरी रैली भाजपा की नेता और गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे ने बीड जिले के सावरगांव स्थित भगवान भक्तिगड में की. इन तीनों रैलियों में समर्थकों और कार्यकर्ताओं की अपार भीड़ थी जिसे शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा जा रहा है. इसके अलावा नागपुर में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की परंपरागत दशहरा रैली और पुणे में एनसीपी के प्रमुख शरद पवार की युवाओं की संघर्ष यात्रा रैली को हरी झंडी दिखाकर रवाना करने का जिक्र करना जरूरी है. इस संघर्ष यात्रा रैली का नेतृत्व पवार के विधायक पोते रोहित पवार कर रहे हैं. यह संघर्ष यात्रा रैली नागपुर में पूरी होगी. रोहित का पवार गुट के एनसीपी में कद बढ़ा है. क्योंकि, पवार के भतीजे अजित पवार ने जब एनसीपी को तोड़ा तो दादा पवार के साथ रोहित एक मजबूत दीवार के रूप में खड़े हो गए हैं. इस संघर्ष यात्रा रैली से शिंदे सरकार को घेरने की रणनीति के साथ अगले चुनावों में भाजपा के खिलाफ मोर्चा को मजबूत किया जा रहा है. भागवत की रैली पर सबकी नजर इसलिए टिकी रही कि यह महाराष्ट्र के नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय में होती है. नागपुर भाजपा नेता और राज्य के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का गृह जनपद है. इस समय नागपुर सुर्खियों में है. क्योंकि, नागपुर में भाजपा का जनाधार कमजोर पड़ता जा रहा है. भागवत भी जो बोलते हैं उसका असर भाजपा पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पड़ता है और भाजपा की राष्ट्रीय राजनीतिक दिशा भी अपनी तरह से करवट बदलती है.

अगले साल महाराष्ट्र में लोकसभा के साथ विधानसभा के भी चुनाव होने हैं. इसलिए इन सब रैलियों को चुनावी रैली के रूप में ही देखा जा रहा है और इसका सीधा असर चुनावों पर पड़ने वाला है. उद्धव और शिंदे की रैली यह साबित करने के लिए हुई कि उनकी शिवसेना असली है. यह सच है कि शिवसैनिकों के लिए बाल ठाकरे भगवान की तरह हैं और वे उनसे भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं. आज के ये शिवसैनिक राजनीति भी समझते हैं. इसलिए ये अभी अपना राजनीतिक झुकाव न दिखाकर चुनाव के समय सब कुछ जाहिर कर देंगे. फिलहाल उद्धव और शिंदे अपने-अपने शिवसैनिकों पर भरोसा जताकर अपना पलड़ा भारी बता रहे हैं. उद्धव के लिए शिंदे गुट गद्दार गुट है जिसने सत्ता की लालच में शिवसेना को तोड़ा और भाजपा के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बनाई. उद्धव का मानना है कि अगले चुनाव में बाला साहेब के शिवसैनिक शिंदे गुट और भाजपा को उनके कर्मों की सजा देंगे. लेकिन शिंदे अपनी सफाई में यह बार-बार दोहरा रहे हैं कि उद्धव ने हिंदुत्व का साथ छोड़ा इसलिए उन्होंने शिवसेना का अलग गुट बनाया जो बाला साहेब के विचारों वाली शिवसेना है. शिंदे के इस आरोप को गलत बताते हुए उद्धव भी हमेशा कह रहे हैं कि उन्होंने हिंदुत्व नहीं छोड़ा है. उनका हिंदुत्व भाजपा के हिंदुत्व से अलग है और उनकी शिवसेना का हिंदुत्व राष्ट्रवादी है. इस तरह से विचारों की लड़ाई उद्धव और शिंदे के बीच चल रही है और यह एक चुनावी रंग में रंगा हुआ दिख रहा है. इस हिंदुत्व के कारण शिवसेना का मूल मुद्दा मराठी माणुस अब गौण होता नजर आ रहा है. लेकिन उद्धव यह भी कह रहे हैं कि शिवसेना की आत्मा में हिंदुत्व के साथ मराठी माणुस यानी भूमिपुत्र का मुद्दा जिंदा है.

शिंदे के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी कांटों से भरा है. इस कुर्सी पर वह बहुत सुकून से नहीं हैं. फिलहाल तो शिवसेना को तोड़ने के कारण वह अपने कुछ विधायकों के साथ अयोग्यता की कानूनी लड़ाई में फंसे हुए हैं. इसमें विधानसभा के अध्यक्ष का फैसला मायने रखता है. फैसला पलटने से उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी जा सकती है. इसलिए भाजपा ने सरकार में एनसीपी के अजित गुट को शामिल कर लिया है जो शिंदे गुट पर दबाव की राजनीति कर रहा है. शिंदे पर आरक्षण का भी दबाव है. मराठा आरक्षण को लेकर आंदोलन चल रहा है. इसे दबाने के लिए शिंदे ने रैली में शिवाजी महाराज की शपथ लेते हुए वादा किया कि मराठा को हर हाल में आरक्षण दिलाएंगे. शिंदे की शपथ से आंदोलन तो थमा नहीं है. लेकिन शिंदे ने भी बड़ी सूझबूझ से आरक्षण के मुद्दे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेर लिया है. अगर मोदी ने मराठा आरक्षण का कानूनी रास्ता नहीं निकाला तो उसका असर लोकसभा चुनाव में पड़ेगा. मराहाष्ट्र के 48 लोकसभा क्षेत्रों के 75 विधानसभा क्षेत्रों को मराठा बुरी तरह से प्रभावित करेंगे. ऐसे में मोदी के लिए ज्यादा से ज्यादा लोकसभा की सीटें जीतना आसान नहीं होगा. शिंदे सरकार को मराठा के साथ-साथ धनगर समाज को भी आरक्षण देना होगा. क्योंकि, आरक्षण की मांग को लेकर मराठा और धनगर समाज एकजुट हो गए हैं.

आरक्षण का मुद्दा जिस तरह से महाराष्ट्र की राजनीति को प्रभावित कर रहा है उसमें राज्य के पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने का मुद्दा भी शामिल है. पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने पर बांबे हाई कोर्ट ने आपत्ति नहीं जाहिर की है. मराठा आरक्षण की वजह से ओबीसी समाज जागरूक है. उसे डर है कि ओबीसी को प्रभावित करके मराठा को आरक्षण दिया जा सकता है. अब ओबीसी की नेता पंकजा ने अपनी रैली में मराठा और ओबीसी के आरक्षण को गंभीर मुद्दा बताकर अपनी रणनीति जाहिर कर दी. भाजपा ने राज्य की राजनीति में पंकजा को दरकिनार कर रखा है. लेकिन उन्होंने साफ कर दिया है कि उनको और उनके समर्थकों को दबाया नहीं जा सकता है. पंकजा ने संकेत दे दिया है कि लोकसभा चुनाव में वह अपने विरोधियों को सबक सिखाएंगी. अगर पंकजा अपनी रणनीति में सफल होती हैं तो उनकी वजह से मोदी को महाराष्ट्र के लोकसभा चुनाव में विजय आसान नहीं होगा. दूसरी तरफ मोदी के लिए पवार भी बड़ी चुनौती के रूप में डटे हुए हैं. क्योंकि, पवार को अपना अस्तित्व बचाना है और इसके लिए वह अपने भतीजे अजित को हर मार्चे पर मात देने के लिए अपनी नई जमीन तैयार कर रहे हैं. अजित के कारण भी मोदी को झटका लग सकता है. मोदी को झटका तो भागवत के संकेत में भी दिख रहे हैं. भागवत ने मोदी के मुस्लिम तुष्टिकरण पर भी इशारा किया है. इसके साथ अयोध्या में राम मंदिर के गर्भगृह में श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को करने की घोषणा का असर लोकसभा पर भी पड़ेगा. इस तरह से देखा जाए तो महाराष्ट्र में मोदी को झटका देने के लिए उन्हें कई मोर्चों पर घेरा जा रहा है.

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