महाराष्ट्र की राजनीति का पर्यावरण थोड़ा बिगड़ गया है. वजह साफ है कि अगले साल लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होने हैं. इसलिए सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आरोपों और प्रत्यारोपों का आदान-प्रदान कुछ इस तरह से होने लगा है जिसमें अब धीरे-धीरे करके कुछ गड़े मुर्दे भी उखड़ते दिख रहे हैं. इसमें पुराने रिश्तों की सीमाओं को भी लांघा जा रहा है. कल तक जिन्हें पितातुल्य वाला सम्मान दिया जा रहा था अब उसमें कोई अपनापन का आभास कम हो गया है. खासकर महाराष्ट्र की राजनीति में इस तरह का माहौल पहले कभी नहीं देखा गया है. लेकिन जबसे शिवसेना और एनसीपी में फूट पड़ी है तबसे राजनीतिक रिश्तों की हवा प्रदूषित होने लगी है और यह महाराष्ट्र की राजनीति की सेहत के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा है.
सत्ता पर काबिज होने की जो जिद है वही राजनीति के पर्यावरण को खराब करने में अहम भूमिका निभा रही है. 2019 में यह जिद एक संक्रमण के तौर पर सामने तब आया जब भाजपा और शिवसेना का वर्षों पुराना रिश्ता टूट गया और वह भी मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर. इन दोनों पार्टियों के प्रमुख नेताओं ने बंद कमरे में तय किया था कि ढ़ाई-ढ़ाई साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालेंगे. लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद क्या हुआ तेरा वादा जैसे सवाल में उलझ गया. मौके की नजाकत ने एनसीपी प्रमुख शरद पवार की निगरानी में महा विकास आघाड़ी को जन्म दिया गया और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सरकार भी बन गई. आघाड़ी में कांग्रेस भी शामिल है. सत्ता हाथ से जाने के दर्द को सहलाते सहलाते भाजपा ने ढ़ाई साल बाद उद्धव की सरकार को गिरा दिया और इसे बदले की कार्रवाई के रूप में देखा जाने लगा.
भाजपा को सबसे ज्यादा चोट शिवसेना और एनसीपी ने दिया था. इसलिए उसने इसी दोनों पार्टी पर जमकर प्रहार किया और दोनों में बड़ा विभाजन करा दिया. भाजपा ने राजनीति के खेल में यह नया प्रयोग किया. उसने शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया. शिंदे अपने साथ 50 विधायकों की खींचकर भाजपानीत सरकार में शामिल कर लिया. जाहिर-सी बात है कि इसके बाद एनसीपी का ही नंबर था. इसमें मुख्यमंत्री का सपना देखने वाले अजित पवार को खींचा गया जो शरद पवार के भतीजे हैं. हालांकि, भाजपा ने अजित के साथ मिलकर सरकार बनाने का एक प्रयोग किया था. उसमें भाजपा को सफलता नहीं मिल पाई थी. अजित अपने साथ एनसीपी के विधायकों को नहीं खींच पाए थे. तब अजित और देवेंद्र फडणवीस की सरकार कुछ घंटों की ही रही थी. लेकिन इस साल जुलाई में भाजपा अपने मकसद में कामयाब हो गई. शिंदे के मजबूत कंधे के बावजूद भाजपा ने अजित को इसलिए सरकार में लाया ताकि अगले चुनावों से पहले एनसीपी की कमर पूरी तरह से टूट जाए.
चुनाव से पहले भाजपा ने अपना मकसद तो पूरा कर लिया. लेकिन उद्धव ठाकरे और शरद पवार को भी तो अपना अस्तित्व बचाना है. इसलिए ये दोनों भी राजनीति के मैदान में ऐसे डटे हैं जैसे भाजपा को हर हाल में परास्त करके ही रहेंगे. यह सबको पता है कि राजनीति के मैदान में तलवारें नहीं भांजे जाते बल्कि यहां आरोपों और प्रत्यारोपों के गोले दागे जाते हैं. ये गोले बड़े खतरनाक होते हैं. शिंदे गुट पर भाजपा के साथ सौदेबाजी में 50-50 करोड़ रूपये लेने के आरोप लगे. ऐसे आरोपों से अजित गुट बचा रहा. इसके पीछे शरद पवार की मंशा कुछ और होगी. वह कानूनी लड़ाई लड़ने में भी उद्धव ठाकरे की तरह आक्रामक नहीं हैं. उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा बागियों के खिलाफ उनके चुनाव क्षेत्रों पर झोकना शुरू किया है. इससे उनकी पार्टी के बागी थोड़े बौखला भी गए हैं. शरद पवार चाहते हैं कि उनकी पार्टी के बागी अगला चुनाव जीत न सकें.
शरद पवार ने अपने अस्त्र का प्रहार सबसे पहले छगन भुजबल पर किया जो उनके साथ कई सालों से थे. भुजबल शिवसेना में तोड़फोड़ करने वाले सबसे पहले शिवसेना नेता थे. लेकिन जब शरद पवार उनके खिलाफ उनके क्षेत्र में अभियान चलाया तो भुजबल ने अपनी सीमा लांघते हुए शरद पवार के खिलाफ गड़े मुर्दे उखाड़ना शुरू कर दिया है. हालांकि, शिंदे ने अभी उद्धव ठाकरे के खिलाफ इस तरह की सीमा नहीं लांघी है. वह यह जरूर कहते हैं कि समय पर उद्धव ठाकरे की भी असिलयत जाहिर किया जाएगा. लेकिन भुजबल ने तो मुंह खोल ही दिया है. उन्होंने अब्दुल करीम तेलगी का मुद्दा उठाया जो हजारों करोड़ो रूपए के फर्जी स्टांप घोटाले का आरोपी था. उसने नार्कों टेस्ट में कथित तौर पर शरद पवार और भुजबल का नाम लिया था. हालांकि, इस कथित घोटाले मामले में शरद पवार जांच से बचे रहे. लेकिन विपक्षी दल भाजपा के दबाव में तत्कालीन मंत्री भुजबल को इस्तीफा देना पड़ा था. इस कथित घोटाले मामले में भुजबल के भतीजे समीर भुजबल से भी पूछताछ हुई थी. यह दीगर बात है कि भुजबल अभी भाजपानीत शिंदे सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. भुजबल ने शरद पवार से सवाल किया कि उन्होंने 1992-93 के दंगों के बाद इस्तीफा क्यों नहीं दिया था. वह तो यह भी कह रहे हैं कि शरद पवार क्या एनसीपी के 54 विधायकों के क्षेत्रों में जाकर माफी मांगेंगे.
बिगड़े राजनीतिक पर्यावरण का ही नतीजा है कि राज्य में गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं. तेलगी जैसे कई और मामले लोकसभा और विधानसभा के चुनावों से पहले बाहर आएंगे. लेकिन इससे किसी भी पार्टी के पारंपरिक मतदाता कितना प्रभावित होंगे यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे. फिलहाल तो इसे किसी भी नेता के चरित्र हनन के तौर पर देखा जा रहा है. शरद पवार ऐसे नेता हैं जो अपने बचाव के लिए कई तरह के कवच का इस्तेमाल करते रहे हैं. तेलगी मामले में उस समय पार्टी के प्रमुख के तौर पर शरद पवार ने भुजबल का बचाव करते हुए कहा था कि काम करने वाले को टारगेट बनाया जाता है. भुजबल जब महाराष्ट्र सदन के घोटाले मामले में फंसे थे तब भी शरद पवार ने उनका बचाव किया था. लेकिन भुजबल अपने पुराने पार्टी प्रमुख शरद पवार को बेनकाब करने के लिए मैदान में दहाड़ना शुरू कर दिया है. लेकिन शरद पवार ने कहा है कि तेलगी मामले में भुजबल से इस्तीफा नहीं दिलवाता तो इस मामले में उनकी गिरफ्तारी हो जाती. पार्टी में फूट डालने वाले अपने भतीजे अजित को बचाने के लिए शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपना मुंह खोला. मोदी ने जब सहकारी बैंक और सिंचाई विभाग से जुड़े 70 हजार करोड़ रूपए के घोटालों वाली पार्टी के रूप में एनसीपी का नाम लिया तो शरद पवार ने कहा था कि इसी पार्टी के अजित गुट को भाजपा सरकार में शामिल क्यों किया. इससे एनसीपी भ्रष्टाचार मुक्त हो गई. शरद पवार के करीबी और एनसीपी के विधायक दिलीप वलसे पाटिल को भाजपा सरकार में सहकारिता मंत्री बना दिया. सिंचाई घोटाले में कथित रूप से शामिल अजित को वित्त मंत्री बनाकर राज्य का खजाना सौंप दिया गया. शरद पवार ने मोदी से कहा है कि वह सिंचाई घोटाले की जांच भी करा लें. लेकिन मोदी ऐसा नहीं कर सकते. अजित गुट के मंत्री हसन मुश्रीफ भी ईडी की जांच के घेरे में हैं. धनंजय मुंडे भी आरोपों से घिरे हैं. शरद पवार और अजित पवार के बीच पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद को लेकर लड़ाई चल रही है. भाजपा के परिवारवाद आंदोलन के खिलाफ अजित ने बड़े बेटे पार्थ पवार के बाद अब अपने दूसरे बेटे जय पवार को भी राजनीति में लाने की तैयारी कर ली है. वैसे, शिंदे गुट के भी कई विधायकों पर ईडी का शिकंजा कसा हुआ है. लेकिन जिस तरह से अजित गुट के विधायक शरद पवार के पीछे पड़े हैं उस तरह से शिंदे गुट के विधायक उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे को बेनकाब करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. भाजपा भी उद्धव ठाकरे के खिलाफ इस तरह से मुंह खोल रही है जिससे लगता है कि चुनाव से पहले दोनों फिर से मित्र बन जाएं. कहा तो यह भी जा रहा है कि शरद पवार के खिलाफ गड़े मुर्दे इसलिए भी उखाड़े जा रहे हैं ताकि विपक्षी संगठन इंडिया में उनको संदिग्ध की श्रेणी में रखा जा सके. इससे विपक्षी एकता कमजोर हो सकती है और इसका फायदा भाजपा को मिल सकता है.