महाराष्ट्र का एक 82 वर्षीय युवा राजनीतिक योद्धा सुर्खियों में है जो इस समय एक राजनीतिक युद्ध लड़ रहा है. इस राजनीतिक युद्ध में इस युवा को इस युद्ध के मैदान में अपने रिश्तेदार से भी लड़ना पड़ रहा है. यह युवा राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले कोई और नहीं बल्कि शरद पवार हैं. उनके भतीजे अजित पवार ने उन्हें एहसास दिलाया कि वह बूढ़े हो गए हैं इसलिए वह राजनीति से संन्यास ले लें और राजनीति में आगे बढ़ने के लिए उन्हें आशीर्वाद दें. उम्र को लेकर तंज कसे जाने से पवार बेहद आहत हो गए. उन्होंने अपने भतीजे को प्रत्युत्तर में कहा है कि उनकी उम्र को लेकर कुछ न कहें. वह आज भी उनसे भी ज्यादा युवा हैं. पवार को पता है कि जो मन से युवा होता है वह शारीरिक रूप से युवा से ज्यादा मजबूत युवा होता है. अब तो यह सबको पता है कि पवार सालों से कैंसर से भी युद्ध लड़ रहे हैं और उसे भी अपने सामने कमजोर करके रखा हुआ है. और इस समय वह अपने राजनीतिक युद्ध में अपने रणनीतिक कौशल के साथ मैदान में उतर आए हैं. उनका जोश और जज्बा हर किसी को अचंभित कर रखा है और वह अपने आत्मविश्वास के साथ डटे हुए हैं. वह अपने विजयपथ पर भतीजे अजित को बताएंगे कि वह अब भी जवान हैं. उम्र ने उन्हें अभी बूढ़ा नहीं किया है.
राजनीति के मैदान में पवार छह दशक से ज्यादा समय से मौजूद हैं. इस दौरान उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं और हर झंझावात से मुकाबला करते हुए आगे बढ़े हैं. लेकिन कहा जाता है न कि माहिर तैराक नदी किनारे ही डूबता है और परिवार के आगे ही कमजोर होता है. पवार अभी परिवार के आगे ही सबसे ज्यादा कमजोर दिख रहे हैं. बावजूद इसके उन्होंने जिस तरह से अपनी राजनीतिक लड़ाई शुरू की है उससे राजनीतिक हलचल तो मची हुई है. क्योंकि, पिछले विधानसभा चुनाव में भी पवार ने सतारा में बारिश के पानी में भींगकर चुनावी सभा की थी और उन्होंने पार्टी को एक मजबूत स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया था. इस बार भी जब पवार ने अपने राजनीतिक युद्ध के लिए अपने पहले राजनीतिक मैदान के रूप में नासिक के येवला को चुना तो यहां बारिश ने उनका स्वागत किया और पवार इस पानी में भींगने के बाद बहुत ज्यादा आत्मविश्वास से भरे थे. उन्होंने महसूक किया कि उनकी शुरुआत सतारा जैसी अच्छी है और अगला कदम उन्हें विजयपथ की ओर लेकर जाएगा. येवला क्षेत्र छगन भुजबल का है जो अजित के साथ शिवसेना (शिंदे गुट) और भाजपा सरकार में शामिल हो गए हैं. येवला में पवार काफी भावुक थे और उन्होंने येवला के लोगों से माफी मांगी की उन्होंने किसी व्यक्ति (भुजबल) को पहचानने में पहली बार गलती की और अब दोबारा ऐसी गलती नहीं दोहराएंगे. एनसीपी में फूट पड़ने के बाद पवार पहली बार येवला आए और यहीं से उन्होंने अपनी राजनीतिक युद्ध का शंखनाद किया. इसकी एक वजह यह भी है कि नासिक जिले के लोगों ने पवार को हमेशा साथ दिया है और उनकी पार्टी को यहीं से जीवन भी मिला है. अब जब उनकी पार्टी बिखरी है तो पवार अब यहीं से ऑक्सीजन और ऊर्जा लेकर बतौर योद्धा आगे बढ़ रहे हैं. वह दिलीप वलसे पाटील के क्षेत्र में भी जाएंगे जो कभी पवार के पीए थे और पवार ने उन्हें हमेशा जीतने वाला विधायक बनाया.
अगर देखा जाए तो पवार की पार्टी एनसीपी में फूट अचानक नहीं है. इसके लक्षण पहले से दिखाई पड़ रहे थे और सच माना जाए तो पवार को भी इसके बारे में पहले से ही आभास था. लेकिन पवार को अपने अजीज भतीजे अजित से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह उनकी पार्टी के साथ उनके भी अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं. पवार को पार्टी के साथ अपने परिवार को भी बचाने के लिए मोर्चा संभालना पड़ रहा है. रोहित पवार तो पवार के साथ हैं. लेकिन अजित के विद्रोह की वजह से जो भी राजनीतिक घटनाक्रम घटा रहा है उससे पवार न तो विचलित हैं और न ही उनके चेहरे से हंसी गायब हुई है. यही उनके विरोधियों पर भारी पड़ रहा है और अब भी पवार से प्यार करने वाली जनता उनके साथ जमीन पर दिख रही है. येवला इसका पहला तस्वीर है. जहां भुजबल को भी आभास हो रहा होगा कि अगर नासिक की जनता पहले की तरह ही पवार से जुड़ी रही तो उनका राजनीतिक जीवन खतरे में पड़ सकता है. लेकिन अभी चुनावी दंगल शुरू होने में समय है तो भुजबल भी अपने बचाव में अपनी राजनीतिक रणनीति पर काम करने में जुट गए हैं. भुजबल ने एनसीपी से पहले शिवसेना से बगावत की थी और तब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने भुजबल को मुंबई से चुनाव जीतने नहीं दिया था. इसके बाद पवार ने भुजबल को येवला चुनाव क्षेत्र से जिताया था और यह जीत अब तक बरकरार रही है.
पवार की पार्टी में बिखराव की स्थिति शिवसेना की तरह ही है. पवार के साथ लगभग एक दर्जन विधायक बचे हुए हैं और इसमें से भी कुछ विधायक शायद आगामी चुनाव से पहले भी अजित के साथ हो सकते हैं. लेकिन पवार के अंदर ऐसा पावर है कि वह कोई भी चमत्कार कर सकते हैं. इससे पहले भी पवार के साथ जब छह विधायक रह गए थे तब उन्होंने अपने पचास से ज्यादा उम्मीदवारों को चुनाव जिताकर विधायक बनाया था. यह कहा जा सकता है कि पवार के लिए अब पहले वाली स्थिति नहीं है. लेकिन पवार को अपनी रणनीति पता है. इसलिए वह वन मैन आर्मी की तरह आज के राजनीतिक युद्ध में अपनी राजनीतिक युद्ध कला का प्रदर्शन करने निकल पड़े हैं. इस युद्ध में उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनी बेटी सुप्रिया सुले को बारामती लोकसभा चुनाव क्षेत्र से चुनाव जिताना भी है. भाजपा के तमाम बड़े नेताओं ने घोषणा कर दी है कि 2024 के चुनाव में सुले को बारामती से बेदखल करना है. इस काम में भाजपा निश्चित रूप से अजित की मदद लेगी. यह वही अजित हैं जिन्होंने पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने के बाद अपने चाचा पवार के लिए अपनी जीती हुई सीट छोड़ दी थी. क्योंकि, तब पवार को केंद्र में जगह मिली थी और उसे बरकरार रखने के लिए उन्हें चुनाव जीतना था. यहां चाचा और भतीजे के बीच पारिवारिक प्रेम दिखता है और इसी के बल पर उनका रिश्ता अब तक बरकरार था. लेकिन महत्वाकांक्षा ने उन्हें पार्टी को तोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. वह खुद भी कह चुके हैं कि वह महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं और इसके लिए वह चाचा को भी छोड़ सकते हैं. भाजपा के साथ आने से उन्हें अपनी महत्वाकांक्षा पूरी होते दिख रही है. जिस पवार के बल पर जिन नेताओं ने अपना राजनीतिक जीवन चमकाया वो भी सत्ता के प्रेम में अजित के साथ आ गए. सत्ता सुख तो मिल जाएगा लेकिन अजित का मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा हो पाएगा या नहीं इसमें अभी भी संदेह है. क्योंकि, देवेंद्र फडणवीस बार-बार बोल रहे हैं कि एकनाथ शिंदे ही मुख्यमंत्री रहेंगे और उनके नेतृत्व में ही अगला चुनाव लड़ा जाएगा. वैसे, देखा जाए तो राजनीति के मैदान में शिंदे का दबदबा मुंबई और ठाणे तक ही सीमित हैं जहां वह उद्धव ठाकरे को कमजोर कर सकते हैं. लेकिन बाकी महाराष्ट्र में एनसीपी की ताकत अच्छी है और पवार को मात देने के लिए भाजपा अजित का इस्तेमाल करेगी जिनकी बतौर जमीनी नेता के रूप में पहचान है. फिर भी अजित ने तो अपने चाचा से ही राजनीति सीखी है तो गुरू पवार के पास तो कोई तोड़ होगा जो वह अपने भतीजे अजित पर इस्तेमाल करेंगे. भाजपा ने जिस तरह से शिवसेना और एनसीपी को तोड़कर विपक्ष को नखविहीन करने के कोशिश की है उससे भाजपा के अंदर भी विद्रोह सुलग रहा है. जाहिर-सी बात है कि भाजपा के उन कार्यकर्ताओं को अब अपना सपना बिखरता हुआ दिख रहा है जिसने जी-जान से पार्टी के लिए काम किया और अब उनके नाम के टिकट शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित गुट) के पास चले जाएंगे. इतना ही नहीं, शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित गुट) के जो उम्मीदवार एक-दूसरे को हराकर विधायक बने हैं उन्हें भी अपने टिकट कटता हुआ दिख रहा है. टिकट तो उन्हें भाजपा ही देने वाली है. भाजजा की महायुती के अंदर के विद्रोह का फायदा पवार और उद्धव के साथ कांग्रेस को भी मिल सकता है. लेकिन चुनाव के वक्त महाराष्ट्र की जनता का रूख किस तरफ होगा यह मायने रखता है.