पटना हाई कोर्ट ने बिहार में जातिगत जनगणना पर लगी रोक को हटाने का आदेश दे दिया है. इस आदेश के आते ही बिहार में दूसरे दौर की जातिगत जनगणना का काम फिर से शुरू हो गया है. पहले दौर में 80 फीसदी जनगणना का काम पूरा कर लिया गया था और अब दूसरे दौर की 20 फीसदी जनगणना का काम इसी अगस्त माह के अंत तक पूरा कर लेने की कवायद हो रही है. इसके लिए राज्य सरकार ने आठ स्तरों पर पांच लाख से ज्यादा अधिकारियों और कर्मचारियों की टीम तैयार की है. इसमें शिक्षक, लिपिक, मनरेगाकर्मी, आंगनवाड़ी सेविका से लेकर जीविका समूह के सदस्य तक शामिल हैं. इनमें से किसके माध्यम से जातिगत जनगणना का काम कराना है इसकी आजादी जिलाधिकारी को है. इस जनगणना में 12.7 करोड़ जनसंख्या और 2.58 करोड़ घरों को कवर किया जा रहा है. जनगणना के लिए शिक्षकों, लिपिकों और मनरेगाकर्मियों को शामिल करने से इसका प्रतिकूल असर शिक्षा, सरकारी और विकास के कामों पर भी पड़ रहा है.
बिहार जैसे गरीब राज्य में इस तरह की जनगणना का विरोध भले ही अदालत तक पहुंचा हो लेकिन सारे राजनीतिक दल इस जनगणना से अपने राजनीतिक लाभ की भी गणना कर रहे हैं. राज्य में भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी है तो जदयू और राजद जैसी क्षेत्रीय पार्टी भी जागरूक और सक्रिय है. बिहार में प्रतिभाओं की कमी नहीं है. लेकिन बिहार की हैसियत मजदूरों की आपूर्ति करने वाले राज्य के रूप में बना दी गई है. इस पर सुशासन बाबू भी गर्व करते हैं. मगर बिहार से बाहर रहने वाले बिहारियों की मानसिक स्थिति जानने की कोशिश कोई राजनीतिक दल नहीं करता है. वर्षों से पिछड़ेपन की आग से झुलस रहे बिहार में जातिगत जनगणना का लाभ उन तक पहुंच पाएगा जिनके लिए यह जनगणना कराया जा रहा है इसको लेकर आशंका बनी हुई है. भाजपानीत केंद्र सरकार इस जनगणना के खिलाफ है. लेकिन बिहार में भाजपा ने अपना समर्थन जाहिर किया है. ऐसे में इस जनगणना को लेकर राज्य के राजनीतिक दलों की जो स्थिति दिख रही है उसमें यह संकेत मिल रहा है कि ये आम जनता के बारे में कम सोच रहे हैं और अपने राजनीतिक लाभ की गणना ज्यादा कर रहे हैं. जाहिर-सी बात है कि अगले साल 2024 में लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं और उससे कुछ महीने पहले जातिगत जनगणना का काम पूरा होने जा रहा है. बिहार विधानसभा के चुनाव भी 2025 में होंगे. इन दो सालों में इस जनगणना के आधार पर सुशासन बाबू राज्य के गरीबों, पिछड़ों, दलितों, वंचितों और गरीब मुसलमानों के विकास के लिए क्या कर पाएंगे या वे इनके लिए केंद्र से कौन-सी योजना ला पाएंगे, यह बड़ा सवाल है. सारे राजनीतिक दल चुनावी राजनीति में उलझे रहेंगे. बिहार में कई सालों से सुशासन बाबू राज कर रहे हैं और बिहार का विकास देखा जाए तो सिर्फ मजदूर पैदा करने में ही हो रहा है. गरीबी रेखा से ऊपर विकास संतोषजनक नहीं है. इसके लिए जितने जिम्मेदार सुशासन बाबू हैं उतने ही भाजपा सहित अन्य राजनीतिक दल भी हैं.
क्रांति का रूख दिखाने और बदलाव की हवा फैलाने वाले बिहार की दुर्दशा के लिए राजनीतिक दल दोषी हैं. यहां जातिगत राजनीति ही फली हुई है. अब जातिगत जनगणना के समर्थन और विरोध में जातिवाद वाली ही आवाज सुनाई पड़ रही है. यह बिहार मंडल कमीशन की आग में जल चुका है. इस जनगणना को लेकर यह डर बना हुआ है कि इससे अगड़े-पिछड़े आपस में फिर से उलझेंगे और मुस्लिम विरोधी हिंदू कार्ड भी खेला जाएगा. ऐसे में समाज के हर तबके का विकास कैसे होगा इसकी कल्पना की जा सकती है. भाजपा ने अभी से रोहिंग्या मुसलमान और घुसपैठी बांग्लादेशियों का मुद्दा उठाया है. कुछ विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि नीतीश कुमार और उनके सहयोगी अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करने के लिए जातिगत जनगणना करा रहे हैं. इससे उपलब्ध आंकड़ों का लाभ आगामी चुनावों में विभिन्न जातियों के मतदाताओं को साधने में किया जाएगा. लेकिन नीतिश कुमार का कहना है कि इसमें जाति और समुदाय का विस्तृत रिकॉर्ड तैयार किया जाएगा जिससे उनके विकास में मदद मिलेगी. राज्य की सरकारी सूची में 214 जातियां हैं. इसके मुताबिक अनुसूचित जाति में 22, अनुसूचित जनजाति में 32, पिछड़ा वर्ग में 30, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) में 113 और उच्च जाति में 7 की गणना करनी है. बिहार सरकार ने 6 जून 2022 को जातिगत जनगणना कराने के लिए अधिसूचना जारी की थी. 2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार की जनसंख्या 104,099,452 थी. जनसंख्या वृद्धि दर के अनुसार 2023 में लगभग 14 करोड़ होने का अनुमान है.
बिहार ही नहीं बल्कि देश के हर राज्य की सामाजिक और आर्थिक स्थिति अलग है. लेकिन चुनावी राजनीति में जाति समीकरण बहुत मायने रखता है. अब तो धार्मिक समीकरण भी बिठाए जा रहे हैं. इसलिए जातिगत जनगणना में राजनीतिक लाभ तलाशा जा रहा है. राजस्थान, कर्नाटक और तेलंगाना में बिहार से पहले इस तरह की जनगणना कराई गई थी. इसे प्रकाशित नहीं कराया गया था. बावजूद इसके राजस्थान और कर्नाटक में कांग्रेस को चुनावी हार झेलना पड़ा था. झारखंड भी बिहार की तर्ज जातिगत जनगणना कराने की तैयारी कर रहा है. अब बिहार में यह जनगणना अपना किस तरह का राजनीतिक रंग दिखाएगी यह अगले चुनावों में पता चलेगा. यह जनगणना कराने के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे ओबीसी और अन्य जातियों के साथ पसमांदा मुसलमानों की स्थिति के बारे में पता चलेगा. लेकिन इस जनगणना के बाद आरक्षण का मुद्दा गरमाएगा और जातिगत के साथ धार्मिक लड़ाई तेज हो सकती है. भाजपा बिहार में राजद और जदयू को राजनीतिक लाभ लेने से रोकने की कोशिश करेगी तो भाजपा के खिलाफ भी हिंदू वोट बांटने की कवायद हो सकती है.
जातिगत जनगणना कराने के पीछे मकसद साफ है कि अब तक जो जनगणना हुई है उसमें सभी जातियों के आंकड़े जाति, धार्मिक और आर्थिक स्थिति पर आधारित नहीं है. 1951 से लेकर 2011 तक जो आंकड़े गिने और प्रकाशित किए गए उसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के ही आंकड़े हैं और उनके विकास के लिए सरकारी योजनाएं बन रही हैं और उसे लागू किया जा रहा है. सवर्णों के मुकाबले ओबीसी की संख्या ज्यादा है. लेकिन ओबीसी को आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिलता है. मुसलमानों में बुरा हाल पसमांदा मुसलमान का है जिसके विकास के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काम कर रहे हैं. पसमांदा मुसलमान बिहार के साथ उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में हैं जो न सिर्फ गरीबी में जी रहे हैं बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति सोचनीय है. पसमांदा के हिस्से का लाभ सवर्ण मुसलमान उठा रहे है. धार्मिक ध्रुवीकरण के तहत पसमांदा की चुनावी ताकत का अंदाजा अब हर राजनीतिक पार्टी को होने लगा है.
इस समय जातिगत जनगणना के केंद्र में ओबीसी ही है जिसका सही आंकड़ा नहीं है. मंडल कमीशन ने भी जो आंकड़ा दिया है उसके आधार पर देश में ओबीसी की आबादी 52 फीसदी है. यह आंकड़ा भी वर्ष 1931 की जनगणना के आधार पर है. इसलिए जातिगत जनगणना कराने की मांग समय-समय पर होती रही है. भाजपा के ओबीसी नेता दिवंगत गोपीनाथ मुंडे ने संसद में वर्ष 2010 में ओबीसी की जनगणना की मांग की थी. उसके बाद तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने वर्ष 2018 में ओबीसी पर नई जनगणना की बात की थी. लेकिन यह सिर्फ राजनीतिक बात ही रह गई थी. अब बिहार में होने वाली जातिगत जनगणना काफी हद तक सामाजिक और राजनीतिक संतुलन को प्रभावित करेगी. सवाल यह भी उठ रहा है कि जब गैर दलितों और गैर आदिवासियों की सही संख्या का पता नहीं है तो इनके लिए जो सरकारी योजनाएं बन रही हैं उसका इन्हें लाभ कैसे मिल सकता है. इन योजनाओं की धनराशि कहां और किस तरह से खर्च हो रही है. इस जनगणना से जो असंतुलन दिख सकता है उस पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ओबीसी का वर्तमान आकंड़ा बढ़ सकता है या कम हो सकता है. ओबीसी में हिंदू और गैर हिंदू दोनों हैं. जाति के आधार पर हिंदू समाज बंट सकता है. इसमें हिंदू कार्ड खेलने वाली भाजपा अपना नफा-नुकसान समझ सकती है. सवर्णों के आंकड़ों में भी उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकते हैं. आदिवासियों और दलितों के आंकड़ों में फेरबदल होने की गुंजाइश नहीं है. क्योंकि उनकी गिनती हर जनगणना हो रही है. मोदी सरकार ओबीसी पर मुखर हुई है. इसलिए वर्ष 2024 के चुनाव में मोदी के लिए भी ओबीसी की जनगणना मायने रखती है. वर्ष 2025 में बिहार विधानसभा के चुनाव को भी यह जनगणना प्रभावित कर सकती है. बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार की रणनीति के तहत इस जनगणना को धर्म बनाम जाति की चुनावी नीति मानी जा रही है. यह अनुमान है कि धर्म की बजाय जाति के आधार पर वोट पड़ेगा. इसका सबसे ज्यादा फायदा जेडीयू और राजद गठबंधन को मिल सकता है.