इंदौर के बहुचर्चित ‘सोनम कांड’ ने समूचे देश को न केवल हिलाया, बल्कि मीडिया की कार्यशैली, उसकी प्राथमिकताएँ और जनमानस की सूचना-ग्राहक प्रवृत्तियों को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया। यह घटना मात्र एक हत्या या गिरफ़्तारी की खबर नहीं रही — यह एक ऐसा सामाजिक विमर्श बन गई जिसमें न्याय, सनसनी, निजता और डिजिटल नैतिकता सब कुछ उलझ गया।
जहाँ एक ओर ‘राजा’ के लिए सहानुभूति की लहर उठी, वहीं सोनम को लेकर आक्रोश की आंधी चली। परंतु इस भावनात्मक उफान के पीछे सोशल मीडिया की वह अथक मशीनरी सक्रिय रही, जिसने मिनटों में राय बनाई, छवियाँ गढ़ीं और न्यायपालिका से पहले फैसला सुनाया।
सोशल मीडिया: संवाद का मंच या न्याय की भीड़?
घटना की पहली सूचना से लेकर आरोपी की गिरफ्तारी तक, सोशल मीडिया की भूमिका निर्णायक रही। इंस्टाग्राम रील्स, ट्विटर थ्रेड्स और यूट्यूब विश्लेषणों ने जैसे पूरे समाज को कोर्ट रूम में बदल दिया।
ग़ाज़ीपुर में सोनम की गिरफ्तारी की खबर के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि अब सूचना की गति किसी प्रेस मीट की मोहताज नहीं। लेकिन सूचना की यह रफ्तार अक्सर तथ्यों को पीछे छोड़ जाती है। सोशल मीडिया पर फैली कहानियाँ — कभी ‘क्राइम क्वीन सोनम’ तो कभी ‘प्रेम में फँसी निर्दोष युवती’ — एक नए किस्म की “डिजिटल स्क्रिप्ट” बनती जा रही थीं।
इस पूरे दौर में तथ्य पीछे छूटते गए, भावनाएँ हावी हो गईं, और न्याय एक नाटकीय प्रस्तुति में ढल गया।
प्रिंट और टीवी मीडिया: सत्य की खोज में पिछड़ते हुए
जब सोशल मीडिया पर 'राजा की शादी की वायरल क्लिप' और 'सोनम के पुराने TikTok वीडियो' सुर्खियां बटोर रहे थे, तब पारंपरिक मीडिया पुष्टि और नैतिक संतुलन की कवायद में पिछड़ता दिखा।
टीवी चैनलों की बहसें, अखबारों की रिपोर्टें — सब कुछ पाठकों के लिए पुराना पड़ चुका था। विडंबना यह रही कि जिन मीडिया संस्थानों को गहराई और तथ्यों के साथ विश्लेषण करना था, वे भी अंततः ट्रेंड और टीआरपी की दौड़ में शामिल हो गए।
सूचना का नया लोकतंत्र: निजता बनाम वायरलिटी
अब पत्रकारिता कुछ मुट्ठी भर संपादकों के हाथ में नहीं रही। हर स्मार्टफोन धारी नागरिक एक संभावित पत्रकार है। यह सशक्तिकरण जितना लोकतांत्रिक लगता है, उतना ही खतरनाक भी है जब उसकी कोई जवाबदेही न हो।
मृत राजा राहुबंशी के व्यक्तिगत वीडियो, इंस्टाग्राम पर उनकी शादी की रील्स, और सोनम के पर्सनल कॉल्स — सब कुछ एक तमाशे में बदल गया। निजता जैसे शब्द की कोई प्रासंगिकता नहीं रही; मीडिया ट्रायल इतना मुखर हुआ कि न्यायपालिका की विवेचना उसके शोर में दबने लगी।
मीडिया और जन मन के बीच की लुप्त होती रेखा
कभी पत्रकार समाज का दर्पण होता था, आज वह एक रिएक्शन मशीन बन गया है। और पाठक भी अब विश्लेषण नहीं, “वायरलिटी” की तलाश में है। हैशटैग्स और मीम्स के माध्यम से अब न्याय नहीं, जनमत का मनोरंजन होता है।
#JusticeForRaja और #SoniyaTheMastermind जैसे ट्रेंड्स उस भीड़तंत्र का हिस्सा बन गए हैं, जो एक ओर आक्रोश जताते हैं, दूसरी ओर तथ्यों के साथ खिलवाड़ भी करते हैं।
वास्तविक पत्रकारिता की पुकार
क्या आज की पत्रकारिता में अब भी वह साहस बचा है जो सत्य को खोज सके — तब भी जब वह सनसनीखेज न हो? इस प्रश्न के उत्तर में ही भारतीय मीडिया की अगली दिशा छिपी है।
डिजिटल मीडिया की गति को यदि पारंपरिक मीडिया की गंभीरता और उत्तरदायित्व के साथ जोड़ा जा सके, तो एक संतुलित पत्रकारिता संभव है — ऐसी पत्रकारिता जो न केवल सच्चाई तक पहुँचे, बल्कि उसे उस रूप में प्रस्तुत भी करे जो पठनीय हो, संवेदनशील हो, और न्याय के लिए मार्ग प्रशस्त करे।
एक चेतावनी, एक अवसर
‘सोनम कांड’ भारतीय समाज के लिए एक आईना है — जहाँ सूचना, भावना और न्याय के बीच की रेखाएं मिटती जा रही हैं। यदि मीडिया स्वयं को पुनर्परिभाषित नहीं करता, तो जल्द ही वह न केवल अपनी विश्वसनीयता खो देगा, बल्कि न्याय व्यवस्था को भी भ्रमित करने का माध्यम बन जाएगा।
हमें चाहिए एक ऐसा युग — जहाँ सोशल मीडिया की तीव्रता हो, पर पत्रकारिता की आत्मा भी बरकरार रहे। नहीं तो सूचनाओं की इस आंधी में न्याय की हर आहट खो जाएगी — और जो बचेगा, वह होगा केवल एक वायरल तमाशा।