जोधपुर घटना के बाद न्यायिक चेतना में धारा 38 की गूंज बढ़ी, अधिकारों के दुरुपयोग पर अदालतें लगातार सख्त

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली इन दिनों एक महत्वपूर्ण संक्रमण काल से गुजर रही है और इस परिवर्तन के केंद्र में है भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 38—वह प्रावधान जो पूछताछ के दौरान वकील से परामर्श को नागरिक का संवैधानिक अधिकार मानता है. अनुच्छेद 22(1) के तहत यह सुरक्षा दशकों से मौजूद है, लेकिन BNSS लागू होने के बाद इसकी संवेदनशीलता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है. कानूनी ढांचे के सुदृढ़ होने के साथ-साथ अदालतों में ऐसे मामलों की संख्या भी बढ़ी है जिनमें पुलिस द्वारा इस अधिकार को सीमित या उल्लंघित करने के आरोप सामने आते हैं. इसी राष्ट्रीय बहस के बीच जोधपुर में 1 दिसंबर 2025 की रात कुड़ी भगतासनी थाने में हुई घटना ने धारा 38 के वास्तविक क्रियान्वयन पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए.

जोधपुर में अधिवक्ता भारत सिंह राठौड़ ने आरोप लगाया कि थाना अधिकारी ने उनसे अभद्र व्यवहार किया, धमकाया, वीडियो रिकॉर्डिंग रोकने को कहा और फिर जबरन एक कमरे में ले जाकर मारपीट की. यह घटना उस समय हुई जब वे और उनकी महिला सहयोगी एक बलात्कार मामले में निष्पक्ष जांच और आरोपियों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर थाने पहुंचे थे. वकीलों का आरोप था कि पुलिस बिना वर्दी के आधिकारिक कार्य कर रही थी. सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो में SHO को वकील को कहते सुना गया—“वकील हो तो क्या हुआ, ज्यादा होशियारी मत दिखाओ, 151 में बंद कर दूंगा, सारी वकालत निकाल दूंगा.” इसी बयान ने स्थिति को और अधिक विस्फोटक बना दिया.

घटना के विरोध में वकील रातभर थाने के बाहर धरने पर बैठे रहे. ADCP (पश्चिम) रोशन मीणा मौके पर मौजूद रहे, लेकिन समाधान नहीं निकल सका. वहीं पुलिस कमिश्नर की ओर से आधी रात को जारी बयान में कहा गया कि BNSS की धारा 170 के तहत किसी भी वकील को गिरफ्तार नहीं किया गया है और पूरे प्रकरण की जांच ADCP को सौंप दी गई है. मंगलवार को वकीलों का आंदोलन और तेज हुआ. राजस्थान हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन और राजस्थान हाईकोर्ट लॉयर्स एसोसिएशन ने आपात बैठक कर 2 दिसंबर को हाईकोर्ट और सभी अधीनस्थ अदालतों के न्यायिक कार्य के स्वैच्छिक बहिष्कार का फैसला लिया. संगठनों ने थाने में वकीलों के साथ हुए कथित दुर्व्यवहार और ‘अधिकारों के दुरुपयोग’ की कड़ी निंदा की.

प्रकरण की गंभीरता उस समय और बढ़ गई जब राजस्थान हाईकोर्ट ने इस घटना का स्वतः संज्ञान लिया. कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश संजीव प्रकाश शर्मा के समक्ष पुलिस कमिश्नर, DCP, ACP और SHO हमीर सिंह व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हुए. अदालत में पेश वीडियो फुटेज देखने के बाद हाईकोर्ट ने पुलिस कमिश्नर को कड़ी फटकार लगाई और राज्य सरकार को पूरे पुलिस विभाग के लिए ‘सॉफ्ट स्किल्स’ और सार्वजनिक व्यवहार संबंधी प्रशिक्षण अनिवार्य करने को कहा. SHO को तत्काल निलंबित किया गया और अन्य संबंधित कर्मियों को भी हटाने के निर्देश दिए गए. अदालत ने एक IPS-रैंक अधिकारी को जांच का जिम्मा सौंपते हुए एक सप्ताह में रिपोर्ट देने को कहा. वकीलों ने अपने पत्र में SHO सहित संबंधित पुलिसकर्मियों के विरुद्ध निष्पक्ष विभागीय जांच और भविष्य में वकील–पुलिस समन्वय के लिए स्पष्ट SOP( Standard Operating Procedure) बनाने की मांग रखी. SOP यानी मानक संचालन प्रक्रिया चाहते हैं, ताकि थानों में वकील के प्रवेश, संवाद, पूछताछ से जुड़े अधिकारों और किसी विवाद की स्थिति में जिम्मेदार अधिकारियों की भूमिका पहले से निर्धारित रहे और भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकी जा सके.”

इस घटना ने देशव्यापी बहस को यह सोचने पर मजबूर किया कि यदि स्वयं एक वकील थाने में दुराचार का शिकार हो सकता है, तो आम नागरिक पूछताछ के दौरान अपने अधिकारों की रक्षा कैसे करेगा? सवाल यह भी कि क्या BNSS की धारा 38 आधुनिक सुधार है या केवल उसी संवैधानिक सिद्धांत की पुनर्पुष्टि, जिसकी याद अदालतें दशकों से दिलाती रही हैं कि पूछताछ पुलिस का अधिकार है, लेकिन मौन रहने और वकील से सलाह लेने का अधिकार नागरिक का मूल संरक्षण.

भारतीय न्यायपालिका ने लगातार इस सिद्धांत को मजबूती दी है. 1978 में सुप्रीम कोर्ट ने नंदिनी सत्यपाठी बनाम पी.एल. दानी में कहा था कि किसी भी व्यक्ति को आत्म-अपराधी बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता और वकील की सहायता उसका “संवैधानिक सुरक्षा कवच” है. 1997 में डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में हिरासत से जुड़े अधिकारों पर विस्तार से दिशा-निर्देश जारी किए गए—जिसमें गिरफ्तारी की सूचना, कानूनी सलाह, परिवार को सूचना और मेडिकल जांच जैसी गारंटियाँ शामिल थीं. 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धारा 161 (जो अब BNSS का हिस्सा है) के संदर्भ में कहा था कि किसी भी संदिग्ध को दबाव या प्रताड़ना में बयान देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता और वकील की उपस्थिति निष्पक्षता का आधार है. बाद के वर्षों में कई उच्च न्यायालयों ने विशेष रूप से यह टिप्पणी की कि गैर-गिरफ्तार व्यक्तियों से पूछताछ के दौरान भी संवैधानिक अधिकार पूरी तरह लागू रहते हैं.

धारा 38 का सबसे बड़ा विवाद यह है कि यह ‘consultation’ की अनुमति तो देती है, लेकिन पूछताछ के दौरान वकील की पूरी अवधि तक उपस्थिति की स्पष्ट गारंटी नहीं देती. कई मामलों में पुलिस इसे व्यावहारिक सीमाओं के नाम पर नियंत्रित कर लेती है,जैसे वकील को पूछताछ कक्ष के बाहर बैठाना या बहुत कम समय देना. दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि वकील से सलाह का अधिकार महज़ औपचारिकता नहीं, बल्कि “प्रभावी सलाह” होना चाहिए. BNSS की धारा 35(3) के तहत नोटिस पर पूछताछ के मामलों में सुप्रीम कोर्ट कई बार टिप्पणी कर चुका है कि गैर-गिरफ्तार व्यक्ति अपनी संवैधानिक सुरक्षा नहीं खोता, लेकिन यही चरण अक्सर सबसे संवेदनशील माना जाता है. बॉम्बे हाईकोर्ट ने हालिया निर्णय में ‘थर्ड-डिग्री’ या दबाव डालने वाली रणनीतियों को न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन, बल्कि जांच की विश्वसनीयता पर आघात बताया.

कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि धारा 38 की सफलता केवल कानून की किताबों में नहीं, बल्कि हर थाने, हर पूछताछ कक्ष और हर जिला अदालत के व्यवहार में दिखाई देनी चाहिए. यदि वकील तक पहुंच मुश्किल रहे, कानूनी सहायता इकाइयाँ समय पर उपलब्ध न हों, या पुलिस इसे सिर्फ औपचारिकता मानकर पूरा करे,तो यह अधिकार केवल कागज पर सुरक्षित रह जाएगा. विशेषज्ञों की राय है कि सरकार और न्यायपालिका को मिलकर इस अधिकार को अधिक “सक्रिय” रूप से लागू करना चाहिए,जैसे वकीलों की उपलब्धता सुनिश्चित करने की पूर्व-निर्धारित प्रक्रिया, कानूनी सहायता हेल्पलाइन, और पुलिस कर्मियों को प्रभावी मानवाधिकार प्रशिक्षण.


BNSS की धारा 38 निस्संदेह एक प्रगतिशील कदम है, लेकिन इसकी सफलता तभी सुनिश्चित होगी जब इसे अक्षरशः और निष्पक्ष रूप से लागू किया जाए. पूछताछ का अधिकार पुलिस के लिए जितना आवश्यक है, उतना ही वकील से सलाह नागरिक की जीवन रेखा है. जोधपुर की घटना यह याद दिलाती है कि यह अधिकार केवल विधान में नहीं, बल्कि हर नागरिक की सुरक्षा और लोकतंत्र की विश्वसनीयता से गहराई से जुड़ा है.

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